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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


गुल्‍ली-डंडा मुंशी प्रेम चंद
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एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दाँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दाँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
'तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहूँ?'
'हाँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।'
'न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?'
'हाँ! मेरा दाँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।'
'मैं तुम्हारा गुलाम हूँ?'
'हाँ, मेरे गुलाम हो।'
'मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!'
'घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दाँव दिया है, दाँव लेंगे।'
'अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
'वह तो पेट में चला गया।'
'निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?'
'अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे माँगने न गया था।'
'जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाँव न दूँगा।'
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पाँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चाँटा जमा दिया। मैंने उसे दाँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त आँसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

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